sanjay kumar srivastva
भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने तथा शासन-प्रशासन में पारदर्शिता लाने के लिए जनसूचना अधिकार अधिनियम 2005 लागू किया गया था। लेकिन जनसूचना अधिकार परवान चढ़ने से पहले ही दम तोड़ने लगा है और शहरों के पढे लिखे या यूं कहे कि जागरूक जो संख्या में कम है लेकिन इस अधिनियम का लाभ उठा रहे हैं । लेकिन छोटे शहरों में यह अधिकार नौकरशाही के जाल में उलझकर रह गई है। और सूचना प्राप्त करते-करते जागरूक जन का यह अधिकार एक जंजाल बन गया है । वजह निचले स्तर के कर्मचारियों से लेकर उच्च पदों पर बैठे नौकरशाह सूचना देने से बचते हीं नजर आ रहे हैं । नौकरशाह अब तो सूचना का अधिकार मांगने वाले को इतना दौड़ा-दौड़ा के थका दे रहे हैं कि वह वह बेचारा मजबूर होकर घर पर बैठ जाने को मजबूर है । जनसूचना अधिकार की जमीनी हकीकत के बारे में हमारी टीम द्वारा पड़ताल की गई तो कई आश्चर्यजनक मामले सामने आए। जो यह दिखाने के लिए काफी हैं कि यदि इस कानून को और सख्त तरीके से नहीं लागू किया गया तो यह कानून भी नौकरशाही के हाथ का खिलौना बनकर रह जाएगा। भदोही जनपद के आनंद कुमार ने विधायक निधि के द्वारा बनाए गए एक स्कूल की पत्रावली की फोटो कापी की प्रति मांगी गई तो उन्हें एक माह बाद 22 पेज के 440 रु. जिला विकास कार्यालय के जनसूचना अधिकार के क्लर्क को देने पड़े। वहां के कर्मचारियों ने 2005 में पंचायती राज विभाग के एक शासनादेश का हवाला दिया। जिससे एक पेज का 20 रुपया लेने की बात लिखी गई । ये तो आनंद जी की बात है जिन्हें सूचना मांगने के बदले अच्छी खासी रकम खर्च करनी पड़ रही है तब जाकर उन्हे सूचना मिल पा रही है । अब तो हद हो गई है कि सूचनाएं न देने का विभागों ने एक नया तरीका खोज लिया है कि जो सवाल पूछा जाए उसका उत्तर न देकर अनाप-शनाप उत्तर दे दिया जाए। क्योंकि सूचना के अधिकार से खिलवाड़ करते अधिकारी जानते है कि अधिकतर लोगों को संबंधित कानून की जानकारी नहीं होती और अगर आवेदनकर्ता को मामले और उत्तर के बारे में पहले से कोई जानकारी होगी तो वह आपत्ति जताएगा नहीं तो दी गई सूचना को सच मान लेगा। सूचना अधिकार कार्यकर्ता महेंद्र मौर्या का मानना है कि अधिकांश मामले में आवेदनकर्ता को सही उत्तर के बारे में पता ही नहीं होता है। वह झूठे उत्तर को ही सच मान लेता है। इसी तरह का मामला जनपद के आशीष सिंह का है। जिन्होंने माध्यमिक शिक्षा परिषद से एक विद्यालय के मान्यता प्राप्त के बारे में जानकारी मांगी तो उन्हें उत्तर मिली की पत्रावली अभी जांच में है आने पर उत्तर दे दिया जाएगा। काफी इंतजार के बाद उत्तर नहीं मिला और अपील की तो उन्हें कहा गया कि आपकी अपील समय के अंतर्गत नहीं हूई है। आशीष ने कहा कि उनकी बात पर विश्वास करके इंतजार कराना उन्हें धोखा देने के लिए किया गया। विभागों द्वारा सूचनाएं ना देनी पड़ी, इसके लिए संबंधित विभाग कोई भी हथकंड़ा अपनाने से नहीं चूक रहा है। कथित भ्रष्टाचार के मामले को लेकर चर्चित हो चुके भदोही औद्योगिय विकास प्राधिकण ने सूचना न देने का अपना ही एक मैनुअल तैयार कर रखा है। इस मैनुअल में उन्होंने वो सारी सूचनाएं डाल रखी हैं। जिससे उनके तमाम मामलों का उजागर ना हो सके । विभाग के इस मैनुअल के अनुसार किसी भी प्रकार की जांच, आख्या, अनुशासनात्मक, आख्या नियुक्ति, प्रोन्नति आदि नहीं दे सकते हैं। इन्होंने प्राधिकरण की वार्षिक रिपोर्ट के साथ मैनुअल की अंतिम लाइन में लिख रहा है कि ऐसी कोई भी सूचना नहीं देंगे जो प्राधिकरण हित के प्रतिकूल होगा। इसके बारे में जब राज्य सूचना आयुक्त, ज्ञान प्रकाश मौर्या से बात की गई तो उन्होंने कहा सूचना अधिकार कानून के धारा 8 (1) के उपलब्धों में पहले से ही निश्चित है कि कौन-कौन सी सूचनाएं प्रतिबंधित है। ऐसे में सूचना न देने से कोई अलग से मैनुअल नहीं बनाया जा सकता है। इस बात की शिकायत या अपील की जायेगी शायद तब इस पर कार्यवाही हो, संसद से पारित कानून के ऊपर यह अपना कानून बना लेने जैसी धारणा है। लेकिन कई वर्षों से बनाए इस मैनुअल का सहारा लेकर विभाग ने तमाम भ्रष्ट अफसरो और अपने कथित भ्रष्ट कारनामो को ढ़कने में सफल हो गई है। भदोही नगर के सभासद विनोद सोनकर जनपद के सूचना अधिकार के आंदोलनो के लिए जाने जाते हैं। विनोद सोनकर द्वारा किए गए आंदोलन के बाद भदोही औद्योगिक विकास प्राधिकरण में कथित भ्रष्टाचार में लिप्त एक इंजीनियर के खाते में एक करोड़ बीस लाख मिले और तमाम अनियमितता में लिप्त पाये जाने के बाद उसे निलंबित किया गया। जिस पर बगैर किसी कार्यवाही के आनन-फानन नें बहाली और विभाग के कई अनियमितता और मामले जब सूचना मांगी उन्हें सूचना न देने का कोई कारण बताए बगैर एक लाइन का पत्र भेज दिया कि उन्हें सूचना अधिकार कानून के तहत सूचना नहीं दी सकती है। विनोद सोनकर का कहना है कि विभागों द्वारा वो ही सूचनाएं लोगों को दी जाती है जो बहुत ही साधारण प्रकार है। लेकिन किसी अनियमितता किसी भ्रष्टाचार की सूचना मांगने पर विभागीय कर्मचारी किसी न किसी प्रकार सूचना नहीं देने का उपाय निकाल लेते हैं। यही कारण है कि छोटे जनपदो में सूचना अधिकार का कम प्रयोग किया जा रहा है। सूचनाएं न मिलने पर धीरे-धीरे इस कानून के प्रति लोगों में निराशा आ रही है। उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त ज्ञान प्रकाश मौर्या का कहना है कि भदोही जनपद से कम ही सूचनाएं मांगी जाती है। अब तो भ्रामक और गलत सूचना देने की परंपरा सी चल निकली है। पहले सूचना मांने वालो पर दबाव भी बनाया जाता है। जो व्यक्ति दबाव नहीं मानता है उन्हें आधी-अधूरी गलत सूचना दे दी जाती है और सूचना मांगने वाले व्यक्ति को लगातार परेशान किया जा रहा है । बुद्घजीवियों का मानना है कि इस कानून को प्रभावी बनाने के लिए एक अलग और मजबूत तंत्र बनाने की आवश्यता है। साथ ही सूचना मांगने वाले व्यक्ति गोपनीयता के साथ उसे सहज सूचना उपलब्ध कराने की आवश्यकता है साथ ही इन लोगों का कहना है कि इससे पहले यह कानून भ्रष्ट नौकरशाह और अधिकारियों के मकड़जाल दम तोड़े इसे और सख्त बनाने की आवश्यकता है।
भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने तथा शासन-प्रशासन में पारदर्शिता लाने के लिए जनसूचना अधिकार अधिनियम 2005 लागू किया गया था। लेकिन जनसूचना अधिकार परवान चढ़ने से पहले ही दम तोड़ने लगा है और शहरों के पढे लिखे या यूं कहे कि जागरूक जो संख्या में कम है लेकिन इस अधिनियम का लाभ उठा रहे हैं । लेकिन छोटे शहरों में यह अधिकार नौकरशाही के जाल में उलझकर रह गई है। और सूचना प्राप्त करते-करते जागरूक जन का यह अधिकार एक जंजाल बन गया है । वजह निचले स्तर के कर्मचारियों से लेकर उच्च पदों पर बैठे नौकरशाह सूचना देने से बचते हीं नजर आ रहे हैं । नौकरशाह अब तो सूचना का अधिकार मांगने वाले को इतना दौड़ा-दौड़ा के थका दे रहे हैं कि वह वह बेचारा मजबूर होकर घर पर बैठ जाने को मजबूर है । जनसूचना अधिकार की जमीनी हकीकत के बारे में हमारी टीम द्वारा पड़ताल की गई तो कई आश्चर्यजनक मामले सामने आए। जो यह दिखाने के लिए काफी हैं कि यदि इस कानून को और सख्त तरीके से नहीं लागू किया गया तो यह कानून भी नौकरशाही के हाथ का खिलौना बनकर रह जाएगा। भदोही जनपद के आनंद कुमार ने विधायक निधि के द्वारा बनाए गए एक स्कूल की पत्रावली की फोटो कापी की प्रति मांगी गई तो उन्हें एक माह बाद 22 पेज के 440 रु. जिला विकास कार्यालय के जनसूचना अधिकार के क्लर्क को देने पड़े। वहां के कर्मचारियों ने 2005 में पंचायती राज विभाग के एक शासनादेश का हवाला दिया। जिससे एक पेज का 20 रुपया लेने की बात लिखी गई । ये तो आनंद जी की बात है जिन्हें सूचना मांगने के बदले अच्छी खासी रकम खर्च करनी पड़ रही है तब जाकर उन्हे सूचना मिल पा रही है । अब तो हद हो गई है कि सूचनाएं न देने का विभागों ने एक नया तरीका खोज लिया है कि जो सवाल पूछा जाए उसका उत्तर न देकर अनाप-शनाप उत्तर दे दिया जाए। क्योंकि सूचना के अधिकार से खिलवाड़ करते अधिकारी जानते है कि अधिकतर लोगों को संबंधित कानून की जानकारी नहीं होती और अगर आवेदनकर्ता को मामले और उत्तर के बारे में पहले से कोई जानकारी होगी तो वह आपत्ति जताएगा नहीं तो दी गई सूचना को सच मान लेगा। सूचना अधिकार कार्यकर्ता महेंद्र मौर्या का मानना है कि अधिकांश मामले में आवेदनकर्ता को सही उत्तर के बारे में पता ही नहीं होता है। वह झूठे उत्तर को ही सच मान लेता है। इसी तरह का मामला जनपद के आशीष सिंह का है। जिन्होंने माध्यमिक शिक्षा परिषद से एक विद्यालय के मान्यता प्राप्त के बारे में जानकारी मांगी तो उन्हें उत्तर मिली की पत्रावली अभी जांच में है आने पर उत्तर दे दिया जाएगा। काफी इंतजार के बाद उत्तर नहीं मिला और अपील की तो उन्हें कहा गया कि आपकी अपील समय के अंतर्गत नहीं हूई है। आशीष ने कहा कि उनकी बात पर विश्वास करके इंतजार कराना उन्हें धोखा देने के लिए किया गया। विभागों द्वारा सूचनाएं ना देनी पड़ी, इसके लिए संबंधित विभाग कोई भी हथकंड़ा अपनाने से नहीं चूक रहा है। कथित भ्रष्टाचार के मामले को लेकर चर्चित हो चुके भदोही औद्योगिय विकास प्राधिकण ने सूचना न देने का अपना ही एक मैनुअल तैयार कर रखा है। इस मैनुअल में उन्होंने वो सारी सूचनाएं डाल रखी हैं। जिससे उनके तमाम मामलों का उजागर ना हो सके । विभाग के इस मैनुअल के अनुसार किसी भी प्रकार की जांच, आख्या, अनुशासनात्मक, आख्या नियुक्ति, प्रोन्नति आदि नहीं दे सकते हैं। इन्होंने प्राधिकरण की वार्षिक रिपोर्ट के साथ मैनुअल की अंतिम लाइन में लिख रहा है कि ऐसी कोई भी सूचना नहीं देंगे जो प्राधिकरण हित के प्रतिकूल होगा। इसके बारे में जब राज्य सूचना आयुक्त, ज्ञान प्रकाश मौर्या से बात की गई तो उन्होंने कहा सूचना अधिकार कानून के धारा 8 (1) के उपलब्धों में पहले से ही निश्चित है कि कौन-कौन सी सूचनाएं प्रतिबंधित है। ऐसे में सूचना न देने से कोई अलग से मैनुअल नहीं बनाया जा सकता है। इस बात की शिकायत या अपील की जायेगी शायद तब इस पर कार्यवाही हो, संसद से पारित कानून के ऊपर यह अपना कानून बना लेने जैसी धारणा है। लेकिन कई वर्षों से बनाए इस मैनुअल का सहारा लेकर विभाग ने तमाम भ्रष्ट अफसरो और अपने कथित भ्रष्ट कारनामो को ढ़कने में सफल हो गई है। भदोही नगर के सभासद विनोद सोनकर जनपद के सूचना अधिकार के आंदोलनो के लिए जाने जाते हैं। विनोद सोनकर द्वारा किए गए आंदोलन के बाद भदोही औद्योगिक विकास प्राधिकरण में कथित भ्रष्टाचार में लिप्त एक इंजीनियर के खाते में एक करोड़ बीस लाख मिले और तमाम अनियमितता में लिप्त पाये जाने के बाद उसे निलंबित किया गया। जिस पर बगैर किसी कार्यवाही के आनन-फानन नें बहाली और विभाग के कई अनियमितता और मामले जब सूचना मांगी उन्हें सूचना न देने का कोई कारण बताए बगैर एक लाइन का पत्र भेज दिया कि उन्हें सूचना अधिकार कानून के तहत सूचना नहीं दी सकती है। विनोद सोनकर का कहना है कि विभागों द्वारा वो ही सूचनाएं लोगों को दी जाती है जो बहुत ही साधारण प्रकार है। लेकिन किसी अनियमितता किसी भ्रष्टाचार की सूचना मांगने पर विभागीय कर्मचारी किसी न किसी प्रकार सूचना नहीं देने का उपाय निकाल लेते हैं। यही कारण है कि छोटे जनपदो में सूचना अधिकार का कम प्रयोग किया जा रहा है। सूचनाएं न मिलने पर धीरे-धीरे इस कानून के प्रति लोगों में निराशा आ रही है। उत्तर प्रदेश सूचना आयुक्त ज्ञान प्रकाश मौर्या का कहना है कि भदोही जनपद से कम ही सूचनाएं मांगी जाती है। अब तो भ्रामक और गलत सूचना देने की परंपरा सी चल निकली है। पहले सूचना मांने वालो पर दबाव भी बनाया जाता है। जो व्यक्ति दबाव नहीं मानता है उन्हें आधी-अधूरी गलत सूचना दे दी जाती है और सूचना मांगने वाले व्यक्ति को लगातार परेशान किया जा रहा है । बुद्घजीवियों का मानना है कि इस कानून को प्रभावी बनाने के लिए एक अलग और मजबूत तंत्र बनाने की आवश्यता है। साथ ही सूचना मांगने वाले व्यक्ति गोपनीयता के साथ उसे सहज सूचना उपलब्ध कराने की आवश्यकता है साथ ही इन लोगों का कहना है कि इससे पहले यह कानून भ्रष्ट नौकरशाह और अधिकारियों के मकड़जाल दम तोड़े इसे और सख्त बनाने की आवश्यकता है।
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1 टिप्पणियाँ:
achchha lekh ...... harish singh
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