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12 March 2015

बनारस के लोग मोदी से निराश

पीएम मोदी मेकिंग इंडिया की बात करते हैं। स्किल डेवेलपमेंट पर जोर देते हैं। उनके अपने संसदीय क्षेत्र में स्किल की भरमार  है, लेकिन पिछली सरकारों की बेरुखी से यहां का यह स्किल खत्म हो रहा है। जब मोदी जी सरकार में आए तो उनकी मेक इन इंडिया और स्किल डेवेलपमेंट पर जोर देती बातें बनारस के उद्योगों से जुड़े लोगों को बड़ी उम्मीदें दिखाई थीं, पर बजट में इनके लिए कोई ठोस उपाय न होने की वजह से ये लोग बेहद निराश हैं।
आप यह जानकार हैरान होंगे कि बनारस दुनिया का ऐसा इकलौता शहर है, जहां दस्तकारी के साथ हाथ का काम करने के तकरीबन 60 तरह के दूसरे कारोबार सदियों से देश ही नहीं, बल्कि दुनिया में अपनी धाक जमाये हुए थे, लेकिन आज इनमें से ज़्यादातर कारोबार या तो बंद हो गए या बंद होने की कगार पर हैं।
बनारस के लकड़ी के खिलौने की ही अगर हम बात करें तो इनकी बनावट इतनी सुन्दर होती है कि ये आपसे बात करते नज़र आते हैं। यही वजह है कि अपनी तरफ बरबस खींचते ये खिलौने अगर बोल सकते तो अपने गढ़ने वाले की बेबसी भी ज़रूर बयां करते।
बनारस की कश्मीरी गली में लकड़ी के खिलौने के कई कारखाने हैं जिसमे हर रोज़ लकड़ियां कुशल कारीगरों के हाथों से नए-नए अकार लेती है। कुछ समय पहले तक यह कारोबार अपने चरम पर था। इनके बनाए खिलौने विदेशों में निर्यात होते थे। करोड़ों का कारोबार होता था, लेकिन सरकार ने अचानक कोरइया की उस लकड़ी के इस्तेमाल पर रोक लगा दी, जिससे ये खूबसूरत खिलौने बनाये जाते थे। मजे की बात यह कि इस लकड़ी का जिसका किसी दूसरी चीज में इस्तेमाल भी नहीं होता। बावजूद इसके इस पर रोक लगा दी गई। लिहाजा अब यूकेलिप्टस की लकड़ी का इस्तेमाल होने लगा जिससे खिलौने से चमक गायब हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि जो खिलौने सदियों से बच्चों को जवान करते आए थे अचानक वो दुश्मन नज़र आने लगे।
इस कारोबार को मोदी सरकार से बहुत उम्मीद थी, लेकिन दूसरी सरकारों की तरह यहां भी इन्हें निराशा ही हाथ लगी।  लकड़ी के खिलौने के कारीगर राजू बड़े भारी मन से कहते हैं कि हम लोगों को सरकार से बहुत उम्मीदें थीं। हम लोगों को आज तक कोई मदद नहीं मिली। एनजीओ भी बना, लेकिन उससे कोई फायदा नहीं हुआ। आज तक कुछ नहीं मिला। हम लोग अपने बच्चों को नहीं सीखा रहे कितने लोग काम छोड़ रिक्शा चला रहे हैं। यह काम अब खत्म होने वाला है।  
यह निराशा सिर्फ लकड़ी के कारीगरों में ही नहीं, बल्कि बनारस के ठठेरी बाज़ार की गली में कभी गुजरते वक़्त झेनी हथौड़ी-से निकलने वाली आवाज़, गोप की बिनावट , मुग़ल परताजी, बंगाली नखास, गढ़ाई का काम, बर्तन का काम, तबक के काम जैसी दो दर्जन से ज्यादा कलाओं की दास्तान सुनाया करती थी, लेकिन आज यहां सन्नाटा है। यही हाल बुनकरों का है। बनारसी साड़ी का कारोबार तक़रीबन 1 हज़ार करोड़ का है, जिसमे 300 से 400 करोड़ का हर साल एक्सपोर्ट होता है। कभी ये आंकड़ा इससे कई गुना ज़्यादा था, क्योंकि तब इससे जुड़े रॉ मैटेरियल बनारस और देश के कई हिस्सों में ही बनता था, लेकिन आज हालत यह है कि चाइना से यार्न आने लगा है। इस पर बड़ी विडम्बना यह है कि कच्चे माल चाइनीज यार्न पर तो सरकार 25% टैक्स लगा रही है जबकि इसी धागे से बने तैयार माल जो चाइना से आ रहा है उस पर सिर्फ 10% टैक्स लगा रही है, जो यहां के उद्योगों को ख़त्म कर रहा है। यही हॉल पॉलिस्टर , नायलॉन, कॉटन, मर्सराइज्ड, विस्कोर्स जैसे देश में बनने वाले धागों का है, जिसके कर्ज से बुनकर कभी उबर नहीं पाता।
इस बजट में उन्हें उम्मीद जगी थी, लेकिन हाथ मायूसी ही लगी। इस मायूसी को बुनकर असरफ और साफ़ करते हैं, हम लोगों को बहुत निराशा हुई है। यह बजट कॉर्पोरेट से जुड़े लोगों के लिए है। हम बुनकरों के लिए कुछ नहीं किया है। चाहे एक्साइज ड्यूटी हो, एक्सपोर्ट हो, कोई फेसिलिटी नहीं। कुल मिलाकर चाहे कान इधर से पकड़िये या उधर से बुनकर के लिए कुछ नहीं है।
बनारस में 2007 के सर्वे के मुताबिक़, तकरीबन 5255 छोटी बड़ी इकाई थी। इसमें साड़ी ब्रोकेड ज़रदोज़ी ज़री मेटल गुलाबी मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी पत्थर की कटाई, ग्लास पेंटिंग, बीड्स दरी, कारपेट वॉल हैंगिंग, मुकुट वर्क जैसे छोटे मंझोले उद्योग थे। इनमें तक़रीबन 20 लाख लोग काम करते थे और यह कारोबार 7500 करोड़ का था, लेकिन इनमें 2257 इकाई पूरी तरह बंद हो चुकी हैं और बाकी बची भी बंद होने के कगार पर हैं। यही वजह है कि मुस्ताक अहमद अंसारी जैसे लोगों को मोदी जी से बहुत उम्मीदें थीं, पर उन्हें उतनी ही बड़ी निराशा हाथ लगी।
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